Kajaliyan Festival: बुंदेलखंड का खास त्योहार "भुजरियां" की रही धूम, आदिवासियों ने शैला नृत्य कर एकता का दिया परिचय

Kajaliyan Festival: बालाघाट: कजलियों का त्योहार मध्य प्रदेश और यूपी के बुंदेलखंड में मनाए जाने वाला एक खास त्योहार है। प्रकृति प्रेम और खुशहाली का यह त्योहार यूं तो बुंदेलखंड में प्रमुखता से मनाया जाता है लेकिन आदिवासी इलाकों में...
kajaliyan festival  बुंदेलखंड का खास त्योहार  भुजरियां  की रही धूम  आदिवासियों ने शैला नृत्य कर एकता का दिया परिचय

Kajaliyan Festival: बालाघाट: कजलियों का त्योहार मध्य प्रदेश और यूपी के बुंदेलखंड में मनाए जाने वाला एक खास त्योहार है। प्रकृति प्रेम और खुशहाली का यह त्योहार यूं तो बुंदेलखंड में प्रमुखता से मनाया जाता है लेकिन आदिवासी इलाकों में भी इसकी भूमिका काफी अहम होती है। आदिवासी वनांचल में यह त्योहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार इस त्योहार को मनाने से अच्छी फसल, बारिश और समृध्दि होती है।

भुजरियों को मनाने की वजह

इस पर्व को मनाने के पीछे की वजह अच्छी बारिश, अच्छी फसल और सुख समृध्दि की कामना है। यह त्योहार रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। इसे कजलियां या भुजरियां का पर्व भी कहा जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे को हरी भुजरियां या जवा का हरा भाग सौंपते हैं। यह त्योहार एकता और समरसता का प्रतीक है। इससे लोग आपस में मिलने-जुलने और आपसी संबंध को बनाए रखने में अच्छा मानते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस पर्व की कहानी आल्हा-ऊदल से जुडी हुई है। बताया जाता है कि राजा आल्हा की बहिन चंदा श्रावण मास में ससुराल से मायके आई तो नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सपूतों आल्हा-ऊदल और मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से युवाओं को सुनाई जाती हैं। उनकी गाथाएं बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से चुनी और समझी जाती हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया गया पर्व

श्रावण मास के अंतिम दिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरियों का पर्व बालाघाट जिले के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में धूमधाम से मनाया गया। यहां पर पारम्परिक गीतों के साथ-साथ आदिवासियों की खास प्रस्तुति शैला नृत्य की अनुपम झलक देखने मिली। आदिवासियों के द्वारा शैला नृत्य खुशहाली की कामना के साथ किया जाता है। बताया जाता है कि इस नृत्य की प्रस्तुति से लोग अपनी खुशियों का इजहार करते हैं।

इस नृत्य के माध्यम से आपसी भाईचारा व प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आराध्य देव से अच्छी बारिश, अच्छी फसल और सुख-समृध्दि की कामना की जाती है। एक सप्ताह पहले टोकरी में भुजरियां बोई जाती हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन इसन विसर्जन किया जाता है। इसके साथ ही छोटे,बड़ों को भुजरियां देकर उनसे आशिर्वाद भी प्राप्त करते हैं।

भुजरिया की मान्यता पर आदिवासी नेता की जुबानी

आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र से भुजरियों के पर्व पर पूर्व विधायक दरबू सिंह उईके ने बातचीत के दौरान बताया कि ये पर्व परम्परागत तरीके से प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। इसे श्रावण मास के अंतिम दिन राखी के बाद मनाया जात है। यह मुख्यतः किसानों का त्योहार माना जाता है। किसान जो अब खरीफ की फसल लगा चुका है और आने वाला सीजन जो होगा।वो रबी की फसल का होगा। तो किसान ने भुजरिया में गेहूं का दाना बोकर ये बता दिया है कि अब आने वाला सीजन गेहूं यानी रबी का है। इस भुजरियों के माध्यम से यही संदेश देने का काम किया जाता है। देखा जाए तो इसका महत्व किसानों से जुड़ा हुआ है इसीलिए इसे गांव में धूमधाम से मनाया जाता है।

नृत्य एक्सरसाइज का अच्छा विकल्प

ये आदिवासियों का परम्परागत नृत्य है। इस नृत्य के माध्यम से अपनी संस्कृति सभ्यता को बनाए रखते हुए कैसे जीना है, कैसे रहना है, कैसे अपनी जीवनशैली हो यह भी इस शैला नृत्य के माध्यम से बताया जाता है। इसके अलावा यह ग्रामीण जीवन की एक अलग अनूठी झलक दिखाता है। वहीं, उन्होंने कहा कि पुराने जमाने में एक्सरसाईज के लिए ग्रामीण अंचलों में व्यायाम शाला या जिम नहीं होते थे तो लोग इस नृत्य से भी एक्सरसाइज भी कर लेते थे। क्योंकि नृत्य व्यायाम के लिए एक बढ़िया विकल्प है।

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